‘मीडिया इमरजेंसी’ वाले इन हालातों का दोषी कौन ?

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Media Emergency: गाजियाबाद में एक के बाद एक मीडिकार्मियों के साथ हो रहे घटनाक्रम कहीं न कहीं बेहद गंभीर होते जा रहे हैं। पिछले कुछ वक्त से अफसरशाही से लेकर राजनेताओं तक ने जिस तरह से मीडिया वालों के खिलाफ सीधी कार्रवाईयों का सिलसिला चलाया है, वो बेहद ही गंभीर मुद्दा बन गया है। हालाकि Media के साथ हो रही घटनाओं को हर कोई अपने निजी स्वार्थ से भरे चश्मे से देखता है।

विपक्षी उसे सरकार पर हमला करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। अफसर भी अपनी वाहवाही कराने और अपनी करतूतों पर चुप करने के लिए उन सारी घटनाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो मीडिया वाले भी कम नहीं वो भी अपने निजी लाभ-हानि को देखकर इस तरह की होने वाली घटनाओं पर अपनी क्रिया और प्रतिक्रिया दे रहे हैं। Media कई धड़ों में बंट गई है। कुछ अफसरों के नजदीकी हैं, कुछ सत्तारूढ़ दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के तो कुछ विपक्षी राजनेताओं के । कुछ मीडिया वाले ऐसे भी हैं जो इन घटनाओं का प्रचार प्रसार पीड़ितों से अपने बेहतर और खराब संबंधों के आधार पर कर रहे हैं।

हाल ही में शहर के पुराने Media Person Imran Khan की गिरफ्तारी हुई। इस गिरफ्तारी के मामले में भी यही सब देखने को मिला। कुछ लोग इस कारण इस मामले से खुद को दूर रखे रहे क्योंकि इसमें उलझने से उनके अधिकारियों और राजनेताओं के साथ संबंधों में खटास आती। कुछ जुड़े ही केवल इसलिए क्योंकि ये मामला उन अफसरों या नेताओं से जुड़ा था जिनसे किसी न किसी कारण से उनके संबंध खराब थे।

कुछ ऐसे थे जो महज दिखाने भर के लिए या फिर पत्रकारिता की फिल्ड में केवल अपना नाम और शक्ल दिखाने के लिए आए। ज्ञान बांटा। ईमानदारी का पाठ सुनाया और निकल लिए। लेकिन इस गंभीर मामले पर गंभीरता से विचार करने की फुरसत लगता है कि कलमकारों पर है ही नहीं।नेताओं के लंबे-लंबे भाषण सुनने का वक्त है। अफसरों के पास घंटों चाय, कोल्ड्रिंक और लस्सी पर लंबी-लंबीं चर्चाएं करने के लिए टाइम है, मगर पत्रकारिता से जुड़े लोगों पर अफसरशाही और राजनेताओं की तरफ से दवाब डालने के लिए लगाई जा रही इस इमरजेंसी से निबटने के लिए सोचने विचार करने का वक्त किसी के पास नहीं।

यही हाल रहा तो इसमें संदेह नहीं कि अखिलेश यादव का बयान सच साबित हो जाएगा। इमरान या इमरान से पहले जेल गए हमारे साथियों की तरह आने वाले दिनों में न जाने कब किसका नंबर लग जाए।

Media वालों ने नाराजगी भी जताई मंथन भी हुआ, मगर लगता नहीं निकलेगा हल !

दो दिन पहले Imran Khan को जेल भेजे जाने के बाद पत्रकारों का एक प्रतिनिधिमंडल जिलाधिकारी से मिला और उन्हें बाकायदा लिखित ज्ञापन देकर इस कार्रवाई पर न सिर्फ नाराजगी जताई, बल्कि मांग की कि इस तरह की कार्रवाईयों पर लगाम लगाई जाए। उसी दिन Media Center पर कई दर्जन पत्रकारों की एक बैठक भी हुई जिसमें ना सिर्फ पुलिस और सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नाराजगी का इजहार पत्रकारों ने किया बल्कि कई विषयों पर चर्चा भी हुई।

कुछ ने पुलिस और राजनेताओं खासकर सत्तारूढ़ दल के लोगों के बहिष्कार की बात कही, तो कुछ ने इस पर अपने मीडिया संस्थानों की पॉलिसी के आड़े आने की मजबूरी भी बताई। हालाकि ये तय हुआ कि सभी इस मामले को प्रमुखता से प्रकाशित करके उन खबरों को उच्चाधिकारियों को और सत्ता में बैठे लोगों तक पहुंचाकर अपना विरोध जताएंगे जबकि पुलिस के गुडवर्क को कम तवज्जो देकर और बेडवर्क को प्रमुखता से छापकर विरोध जाएंगे। मगर, लगा नहीं कि ऐसा हुआ।

क्या हुआ, क्या नहीं इस पर बात करने की बजाय जरूरत इस बात की है कि आखिर लगातार बढ़ रही इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगे तो लगे कैसे ?

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