
Common Man Pay Attention: इसमें कोई शक नहीं कि यूपी का मुख्य द्वार कहे जाने वाले गाजियाबाद में वर्कलोड सरकारी मशीनरी पर बहुत ज्यादा है। इसमें भी दोराय नहीं कि जितने बड़े अफसर, काम का दवाब भी उतना ही ज्यादा रहता है। मगर, क्या ये संभव है कि राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के निदेशक के द्वारा मांगे गए जवाब पर भी डीएम साहब के मातहतों को जवाब देने का वक्त लगभग एक महीने में भी न निकले ? लेकिन ये हकीकत है साहब ।
डीएम साहब के मातहत इतने व्यस्त हैं कि लगभग एक महीना होने को है, मगर राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के निदेशक महोदय को उनके पूछे गए एक लाईन के सवाल का जवाब देने की उनके पास फुरसत नहीं है। लिहाजा ! Common Man यानि आम लोगों को Attention रहने यानि ध्यान रखने की जरूरत है। संयम बनाए रखें और अपनी समस्या के निस्तारण के लिए इंतजार करें जैसे कि राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के निदेशक महोदटय को करना पड़ रहा है। आप खुद सोच लीजिए कि जब लगभग एक महीने से डीएम साहब के मातहतों को उन्हें जवाब देने का वक्त नहीं तो आपकी समस्या की सुनवाई कब तक होगी ?
ये है मामला

दरअसल, अनुसूचित जाति के एक फर्जी प्रमाण पत्र के मामले में राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के निदेशक ने करीब एक महीने पहले एक पत्र जिलाधिकारी गाजियाबाद को भेजा था। इस पत्र में जिलाधिकारी से पूछा गया था कि जब जांच में फर्जी प्रमाण पत्र बनाए जाने की पुष्टि हो गई है तो दोषी के खिलाफ क्या कानूनी कार्रवाई की गई है इससे अवगत कराए।
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अनुसूचित आयोग के निदेसख ने इस पत्र में जिलाधिकारी को 10 दिन के भीतर जवाब देने को कहा था। लेकिन जवाब नहीं दिया गया। इस पत्र के बाद आयोग की ओर से बीती 5 दिसंबर को फिर एक रिमाइंडर भेजा गया। जिसमें अपने पहले पत्र का जिक्र करते हुए पूछा गया कि आखिर क्यों उनके द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब नहीं दिया गया।
लेकिन देखिए कि आज तक भी जिलाधिकारी महोदय के मातहतों ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति के निदेशक महोदय के करीब एक महीने पहले पूछे सवाल का जवाब नहीं भेजा है। जाहिर है कि डीएम साहब के मातहत इतने व्यस्त हैं कि उनके पास राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के निदेशक पद पर बैठे सीनियर अफसर को भी जवाब देने का वक्त नहीं है।
Comman Man इंतजार करें ?
डीएम कार्यालय में काम का कितना प्रेशर है और वर्कलोड कितना इसका अंदाजा इस मामले से बखूबी लगाया जा सकता है। लिहाजा आम आदमी से हमारी दर्ख्वास्त है कि संयम बनाएं रखें और डीएम कार्यालय से तत्काल उनकी समस्याओं का निस्तारण होने की उम्मीद न पालें। आप बखूबी समझ सकते हैं कि जब केंद्र सरकार के अधीन विभागों के सीनियर अफसरों को ही जवाब देने की फुरसत नहीं, तो आपकी समस्याओं का निस्तारण डीएम साहब के मातहत भला कैसे करेंगे ?
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मातहतों की लापरवाही, अफसरों पर पड़ती है भारी
गौरतलब है कि इस तरह की अधीनस्थों की लापरवाही और बेपरवाही की वजह से कई बार उच्चाधिकारियों को शर्मिंदगी और जिल्लत झेलनी पड़ती है। कई उदाहरण हैं जब मातहतों की इस तरह की लापरवहियों की वजह से बड़े अफसरों को न सिर्फ उच्चाधिकारियों के सामने सर्मिंदा होना पड़ता है, बल्कि कई बार अदालतों में जाकर कटघरे तक में खड़ा होना पड़ा है।
देखना होगा कि इस प्रकरण में हमारी इस खबर से जिलाधिकारी गंभीर होकर मातहतों को टाइट करते हैं या फिर मातहत अपनी गलती का सुधार करते हैं। लेकिन ये लापरवाही ये बताने को काफी है कि सरकारी मशीनरी में काम करने वालों की वरीयता सबसे पहले उन मामलों पर रहती हैं जिनमें उनका कोई निजी हित या निजी नुकसान हो।
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