
Reality of Media: आज Social Media के जरिये एक कुछ वीडियो मिले। वीडियो थे कुछ अनजान Media वालों के एक गैस रिफलिंग करते हुए पकड़े गए एक भारत गैस के कर्मचारी का। उन लोगों ने कर्मचारी से जो ऑन कैमरा बात की उसने सोचने पर मजबूर कर दिया और पुलिस कमिश्नर की उस सोच पर भी मुझे पुनर्विचार करने को मजबूर कर दिया, जिसमें उन्होंने गाजियाबाद के एक साप्ताहिक अखबार के संपादक से फोन पर आपत्तिजनक टिप्पणी मीडिया को लेकर की थी।
वीडियो बता रही है कि किस तरह से लोग Media के नाम पर गैस रिफिलिंग के अवैध धंधे को निजी लाभ के चलते संरक्षण दे रहे हैं। यदि ये स्तर पहुंच गया है मीडिया का तो अफसरों की ये सोच गलत भी नहीं है। मगर, उन्हें समझना होगा कि सब एक से नहीं हैं। न साप्ताहिक वाले, न दैनिक वाले, न राष्ट्रीय वाले और ना सारे इलेक्ट्रॉनिक वाले या यूट्यूबर्स।
ये है मामला
आज दोपहर कुछ वीडियो मुझे Social Media के जरिये मिले। वीडियो थे ट्रांस हिंडन एरिया के तुलसी निकेतन इलाके के। वीडियो में कुछ अनजान मीडिया वालों ने एक भारत गैस एजेंसी के सप्लायर को रोक रखा था। उससे गैस रिफलिंग की बाबत सवालों-जवाबों का दौर चल रहा था। लगातार पूछने पर डिलीवरी मैन ने बताया कि वो किसी पत्रकार को दो सौ रूपये प्रतिदिन देता है।
उसी के बदले उसे गैस रिफिलिंग करने से कोई नहीं रोकता। ये पूरा स्टिंग करने वाले कथित मीडिया वालों (क्योंकि मैं नहीं जानता) ने उससे उस पत्रकार को फोन करने को कहा। फोन मिलाया गया। उससे बात हुई, मगर उसने जब सुना कि सेल्समैन को किसी ने रोक लिया है, तो उसने फोन काट दिया।
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ये हालात, Media की छवि तार-तार
इऩ वीडियो को देखने के बाद मुझे तो लगा कि वास्तव में मीडिया की छवि इसी तरह के कर्मकांडों की वजह से तार-तार हो रही है। मगर, सवाल ये कि खुद को बड़ा पत्रकार, बड़ा मीडिया कर्मी कहने वाले क्या कर रहे हैं ? क्यों नहीं उठाते वो ऐसे पत्रकारिता पर दाग लगाने वालों की करतूतों के खिलाफ आवाज ? जाहिर है कि आवाज उठाने के पीछे का मकसद या तो इस तरह की हरकतों को करने वालों को संरक्षण देना है, या फिर उनके जरिये होने वाली कमाई में उनकी भी थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी!
अखबार-चैनल भी नहीं रख रहे ख्याल
इस दौर में जबकि Media में आने का एक मानक है, तब भी आलम ये है कि बड़े Media House भी आज कांट्रेक्ट बेस पर कर्मचारियों की भर्तियां कर रहे हैं। एग्रिमेंट बेस पर कथित एजेंसियों को आड़ में जिनका संचालन किसी न किसी तरीके से वे खुद कर रहे हैं मीडियाकर्मियों की भर्तियां होती हैं। मानकों के अनुरूप न शैक्षिक योग्यता की पड़ताल की जाती है, न उनका अनुभव और किसी तरह का पास्ट चेक किया जाता।
इलैक्ट्रॉनिक चैनल्स में तो और बुरी हालत है। वहां स्ट्रींगर्स को भर्ती करने के नाम पर पहले की तरह पर स्टोरी पैसा दैना तो छोड़िए उल्टा माइक आईडी के नाम पर ही पैसे की वसूली मीडिया घराने कर रहे हैं। ये नहीं कहता कि सब, मगर अधिकांश का हाल कमोवेश यही है। माइक आईडी पैसे में देने के साथ-साथ ऐसे मीडिया वालों को एक टारगेट भी दिया जाता है। जिस टारगेट के जरिये उन्हें अपने मीडिया संस्थान को हर महीने या हर साल एक तय रकम का लाभ कराना होता है। नतीजा आपके सामने है कि इस तरह की पत्रकारिता चल रही है कि रिफिलिंग के अवैध धंधे से भी वसूली हो रही है।
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कई वरिष्ठ गाजियाबादी पत्रकारों का ही इतिहास खंगाल लो
मैं जानता भी हूं और मानता भी हूं कि कोई भी फिल्ड पाक-साफ नहीं है। मगर, यदि पत्रकारिता का स्तर सुधारना है तो सिर्फ गाजियाबाद के बहुत सारे वरिष्ठ बने बैठे मीडिया वालों की कुंडलियां ही यदि खंगाल ली जाएं, तो स्थिति साफ हो जाएगी। कोई पत्रकार बनने की शैक्षणिक योग्यता में फेल मिलेगा। कोई अपराधिक रिकॉर्ड वाला मिलेगा। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं देता। अफसर हों या राजनेता सिर्फ अपने निजी स्वार्थों के चलते इस तरह के लोगों को पत्रकारिता का चीरहरण करने दे रहे हैं। जो कुछ पत्रकार बचे भी हैं, उनके पास सिर्फ मूक-दर्शक बने रहने के अलावा कोई चारा ही नहीं है।
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