
Singhraj Jatav अपने दलित प्रत्याशी होने और पुराने बसपाई होने का दंभ भरकर सपा के खाते से चुनावी समर में उतरे हैं। Singhraj का पूरा चुनाव दलित और मुस्लिम वोट पर टिका है। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि दलित समाज में वर्षों से एक सक्रिय दलित सोशल वर्कर के रूप में अपने को स्थापित कर चुके रवि गौतम और बसपा का विकल्प बनी आजाद समाज पार्टी से चुनाव लड़ रहे सतपाल चौधरी से कमजोर मेनैजमेंट के बूते आखिर किस तरह मुकाबला करेंगे। जबकि पिछले काफी वक्त से न तो राजनीति में ही वो सक्रिय हैं और ना ही दलित समाज में उनकी उठ-बैठ है।
इसके इतर दलित मतदाताओं के जेहन में अपनी दशकों से छाप बना चुका हाथी चुनाव चिंह भी उनकी दलित-मुस्लिम वाली सोच की राह में बहुत बड़ा रोड़ा है। Singhraj के पास इस बड़े चुनाव को लड़ाने के लिए मजबूत मैनेजमेंट और ठोस कार्यकर्ताओं का अभाव भी किसी बड़ी मुसीबत से कम नहीं है। इन सबके साथ-साथ दलित वोटर्स को अपनी धुर विरोधी पार्टी समाजवादी के सिंबल साईकिल पर मुहर लगाने के लिए मना पाना Singhraj के लिए बसपा और आजाद समाज पार्टी उम्मीदवारों के लिहाज से भी बहुत बड़ी चुनौती है।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि लाईनपार क्षेत्र में रहने वाले और शहरी इलाके में रहने वाले दलित मतदाता क्या हाथी (बहुजन समाज पार्टी) और केतली (आजाद समाज पार्टी) को ईवीएम में अनदेखा करके साईकिल के निशान के सामने वाला बटन दबा पाएंगे ?
Singh के King बनने की राह नहीं आसान
2024 के उप-चुनाव का बिगुल बज चुका है और राजनीतिक हलकों में हलचलें तेज़ हो गई हैं। गाजियाबाद के इस चुनावी मैदान में इस बार का मुकाबला न सिर्फ पार्टियों का है, बल्कि यह एक सामाजिक गठजोड़ की भी परीक्षा है। समाजवादी पार्टी (सपा) के उम्मीदवार Singhraj अपने दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की तैयारी कर रहे हैं। उनका पूरा चुनावी कैम्पेन इस गठजोड़ पर आधारित है, लेकिन चुनौती इस बार कड़ी है।
दलित समाज में पहले से जमीनी पकड़ रखने वाले आजाद समाज पार्टी के सतपाल चौधरी और बसपा के पूर्व नेता रवि गौतम उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हैं। उसके साथ दलित मतदाताओं के जेहन में दशकों से छाप छोड़ चुके बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी को भुलाकर उन्हें धुर विरोधी कही जाने वाली पार्टी के चुनाव चिन्ह साईकिल का बटन दबवाना बेहद बड़ी चुनौती है।
ये हैं बड़ी अड़चन
Singhraj भले ही सपा के उम्मीदवार हैं, लेकिन उनकी चुनावी राह उतनी आसान नहीं दिखती। लंबे समय से राजनीति से दूरी बनाने वाले Singhraj को दलित समाज में फिर से अपनी छवि बनाने की चुनौती है। दलित मतदाताओं के सामने अब एक ऐसा विकल्प है, जो उनके मुद्दों को सीधे तौर पर उठाने का वादा करता है। लेकिन वो विकल्प दलित मतदाता रवि गौतम और सतपाल चौधरी और बसपा प्रत्याशी की बजाय समाजवादी पार्टी का ‘साईकिल’ चुनाव चिन्ह उस दलित समुदाय के लिए उतना सशक्त प्रतीक नहीं है जितना बसपा का हाथी या आजाद समाज पार्टी की केतली। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या दलित मतदाता अपने पुराने राजनीतिक प्रतीकों को छोड़कर सपा के साथ खड़े होंगे?
रवि गौतम-सतपाल चौधरी की पकड़


रवि गौतम एक सक्रिय दलित समाजसेवी के रूप में जाने जाते हैं और उनके पास क्षेत्र में एक मजबूत जनाधार है। उनके सियासी अनुभव और दलित समाज में उनकी अच्छी-खासी पैठ है, जो Singhraj के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। वहीं, दूसरी ओर सतपाल चौधरी आजाद समाज पार्टी से चुनावी मैदान में हैं। बसपा छोड़ने के बाद उन्होंने दलित समाज में आजाद समाज पार्टी को एक विकल्प के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है। आज उनकी पार्टी दलित समाज में एक नई पहचान बना चुकी है। इसके साथ ही हाथी के चुनाव चिन्ह की गहरी छाप मतदाताओं के मन में वर्षों से कायम है, जो सपा के लिए चुनौतीपूर्ण है।
क्या दलित मतदाता करेंगे गठजोड़ का समर्थन?
दलित-मुस्लिम गठजोड़ की राजनीतिक प्रयोगधर्मिता का यह चुनाव सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है, लेकिन इसमें कुछ अहम सवाल भी खड़े होते हैं। वर्षों से दलित समुदाय में अपनी जगह बना चुके रवि गौतम और सतपाल चौधरी के सामने Singhraj का गठजोड़ कितना प्रभावी सिद्ध होगा, यह देखना होगा। गाजियाबाद के शहरी और लाईनपार क्षेत्रों में दलित मतदाताओं की सोच में एक अलग झुकाव देखने को मिल सकता है।
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बसपा का हाथी EVM में पड़ेगा भारी


बसपा के हाथी चुनाव चिन्ह का अपना विशेष महत्व है, जो दलित समाज के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। जब तक यह पहचान मजबूत बनी रहेगी, तब तक सपा का साईकिल चिन्ह दलित मतदाताओं के लिए इतना आकर्षक साबित नहीं हो सकता है। वहीं, सतपाल चौधरी की आजाद समाज पार्टी की केतली का चुनाव चिन्ह भी तेजी से दलित समाज में लोकप्रिय हो रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या यह गठजोड़ दलित समाज को बसपा और आजाद समाज पार्टी के मजबूत आधार को भेदते हुए सपा की ओर खींच पाएगा?
Singhraj के मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं की कमी
चुनावी प्रबंधन और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा आधार किसी भी प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस मामले में Singhraj के पास मजबूत कार्यकर्ता बल और प्रबंधन की कमी है। गाजियाबाद के राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा है कि सपा ने एक अनुभवी और बड़े नाम के अभाव में Singhraj को उम्मीदवार बनाया है। लेकिन यह रणनीति कितनी सफल होगी, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा। दूसरी ओर, बसपा और आजाद समाज पार्टी के कार्यकर्ता आधार में लंबे समय से सक्रिय हैं और वे मतदाताओं को अपनी पार्टी के पक्ष में मोड़ने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
बसपा-आजाद समाज पार्टी की भूमिका
बसपा ने वर्षों से दलित समुदाय के बीच एक गहरी छवि बनाई है, और इसके कारण दलित मतदाता बसपा के हाथी चिन्ह के प्रति विशेष लगाव रखते हैं। रवि गौतम जैसे नेता जो पहले बसपा से जुड़े थे, उनके पास दलित समाज में एक लंबा अनुभव और जनाधार है। सतपाल चौधरी की पार्टी, आजाद समाज पार्टी ने भी हाल के वर्षों में दलित समाज में अपनी पकड़ मजबूत की है, और वह एक विकल्प के रूप में तेजी से उभर रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या दलित मतदाता इन प्रतीकों को छोड़कर सिंघराज के गठजोड़ का समर्थन करेंगे।
सवाल: परीक्षा: गठजोड़
गाजियाबाद उप-चुनाव 2024 का यह मुकाबला केवल एक राजनीतिक लड़ाई नहीं है, बल्कि यह उस गठजोड़ की परीक्षा है, जिसने वर्षों से राजनीतिक गलियारों में अपनी विशेष पहचान बनाई है। सिंघराज के लिए यह जरूरी होगा कि वे दलित और मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में लेकर आएं। लेकिन उनके सामने रवि गौतम और सतपाल चौधरी जैसे अनुभवी और मजबूत दलित उम्मीदवार हैं। इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि क्या सपा का यह गठजोड़ दलित समाज को अपनी ओर खींच पाएगा या फिर दलित मतदाता अपने पुराने प्रतीकों के प्रति वफादार बने रहेंगे। यह चुनाव सिर्फ सिंघराज के भविष्य का फैसला नहीं करेगा, बल्कि यह दलित-मुस्लिम गठजोड़ की शक्ति और उसकी सीमाओं का भी परीक्षण है।